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रविवार, 29 जुलाई 2012

क्या सवाल उठाना और जांच की मांग करना राष्ट्र का अपमान है?


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इन पर सवाल उठाना क्या राष्ट्र का अपमान है?

राम ने सीता की अग्नि-परीक्षा ली। क्यों ली? क्या राम को सीता पर शक था? क्या राम को अपनी पत्नी पर ही विश्वास नहीं था? क्या औरत विश्वास करने लायक नहीं होती है? जब राम को सीता पर विश्वास था तो उन्होंने सीता की अग्नि-परीक्षा क्यों ली। आखिर लोगों को सीता पर भरोसा क्यों नहीं था। क्या सीता की अग्नि-परीक्षा महिला जाति के खिलाफ है। क्या ये पुरुष के कलुषित मानसिकता का द्योतक है। क्या इससे सीता की गरिमा घटी है? क्या इससे राम की मर्यादा पर बट्टा नहीं लगा है? आखिर हरबार नारी जाति ही क्यों परीक्षा देती रहे। आखिर व्यक्तिगत परीक्षा नारी जाति की परीक्षा क्यों बन जाती है। जब राम ने सीता की अग्नि-परीक्षा ली, इसके बाद भी उन्होंने एक धोबी की बात में आकर सीता को दोबारा वन क्यों भेज दिया। क्या परीक्षा सिर्फ औरत की होती है, क्या पुरुषों की परीक्षा नहीं होती है। पुरूषों की परीक्षा क्यों नहीं होती है। अगर कोई पुरूष की परीक्षा चाहता है तो पुरुष इसके लिए तैयार क्यों नहीं होता है। प्रश्नों की सूची और भी लंबी हो सकती है। 
 
यहां मैं अपने स्तर पर हर प्रश्न का जवाब देना चाहूंगा। राम ने सीता के सतीत्व की परीक्षा के लिए अग्नि-परीक्षा ली (यहां अग्नि-परीक्षा का अर्थ कठिन परीक्षा से है)। राम को अपनी पत्नी पर शक नहीं था। राम को अपनी पत्नी पर अटूट विश्वास था, जितना विश्वास एक मर्यादा पुरूषोत्तम में होना चाहिए। औरत विश्वास करने लायक होती है। राम को अपनी भार्या सीता पर अटूट विश्वास था फिर भी उन्होंने लोगों का शक दूर करने के लिए सीता की अग्नि-परीक्षा ली। सवाल उठाना, शक करना मानव की सहज प्रवृति है, इसलिए लोगों ने सीता जैसी पवित्र स्त्री पर भी शक किया, यानी शक किसी पर भी किया जा सकता है, सवाल किसी पर भी उठाया जा सकता है। हॉं लोगों को सीता पर भरोसा नहीं था क्योंकि ये मानव की सहज प्रकृति और प्रवृति है। सीता की अग्नि-परीक्षा को नारी जाति के खिलाफ नहीं माना जा सकता है। इंसान व्यक्ति के सबसे अहम मानी जानी वाली चीज पर ही सवाल उठाता है। नारी के लिए उसका सतीत्व, उसकी लाज, उसका शील ही सर्वश्रेष्ठ है, इसलिए सीता के सतीत्व पर ही सवाल उठाया गया। इसे पुरूष के कलुषित मानसिकता का द्योतक नहीं माना जा सकता है। पुरूष ही नहीं, बल्कि खुद महिलाएं ही महिलाओं के सतीत्व, चालचलन, शील और लज्जा पर सवाल उठाती हुई देखी जा सकती हैं। किसी पुरूष प्रधान समाज नहीं, बल्कि पूरी मानव जाति की ये प्रकृति है कि वह किसी व्यक्ति की सबसे बड़ी पूंजी या सबसे बड़ी शक्ति पर ही सवाल उठाता है और उसे संदेह के घरे में लाता है। उसकी जांच कराना चाहता है। जाहिर है कि उस अग्नि-परीक्षा से सीता की मर्यादा कम नहीं हुई है और ना ही राम की मर्यादा कम हुई है। 
 
जहां तक बात हरबार नारी जाति की परीक्षा की है तो परीक्षा नारी जाती तक सीमित नहीं है। ना ही ये किसी वर्ग तक सीमित होनी चाहिए। भले ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह खुद को बचाने के लिए ये सामंतवादी तर्क दे रहे हों कि सीजर की पत्नी को संदेह से परे रखा जाना चाहिए। ये सोच उनकी हो सकती है। मगर, जनता को किसी पर भी शक और सवाल करने का हक होना चाहिए। सवाल को राष्ट्र के अपमान से जोड़ा जाना व्यक्ति के मौलिक अधिकारों के विरुद्ध है। सीता की अग्नि-परीक्षा लेने के बाद भी राम ने उन्हें जंगल भेजा क्योंकि उनकी जनता में से एक की शिकायत थी कि राम ने लंका गई सीता को वापस क्यों लाया। इस परीक्षा देना आम आदमी के लिए संभव नहीं। राम ने ऐसा किया और इसलिए तो राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, हमारे आदर्श पुरुष हैं, हमारे भगवान हैं। सीता नारी जाति की गौरव और आदर्श हैं। आखिर ये लोग इतने श्रेष्ठ क्यों और कैसे हैं। राम ने कभी नहीं कहा कि उन्हें सीता के शील-स्वभाव और सतीत्व पर पूरा भरोसा है और वो इसकी परीक्षा नहीं कराएंगे (जैसा कि बार-बार खुद प्रधानमंत्री और सरकार के मंत्री कहते हुए देखते जा सकते हैं)। लाख विश्वास के बावजूद उन्होंने ऐसा किया ताकि जनता को सीता पर शक न रह जाए और सीता की गरिमा और मर्यादा में अभिवृद्धि हो। 
 
मगर, दुर्भाग्य है कि आज हम खुद को ईमानदार, साफ-छवि कहते हुए थकते नहीं हैं, मगर कोई अग्नि-परीक्षा देने(स्वतंत्र एजेंसी से जांच) के लिए तैयार नहीं हैं। जनता का संदेह सवालों के जरिए सामने आ रहे हैं। मगर प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि सीजर की पत्नी को संदेह के घेरे बाहर रखा जाना चाहिए। सरकार के मंत्री और सिपहसलार मान हानि के मुकदमे की धमकी देते हैं (कुछ ऐसा ही धमकी देने वाले एक केंद्रीय मंत्री को हाल ही में इस्तीफा देना पड़ा।) जनता सवाल उठाती है तो सरकार सवाल उठाने वालों को परेशान करने के लिए उसके पीछे अपना सरकारी तंत्र लगा देती है। वो राजतंत्र था जिसमें अक्सर राजाओं ने लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा की, मगर आज लोकतंत्र है जिसमें बड़े ही सुनियोजित तरीके से लोकतंत्र की हत्या की जाती है। इस हत्या में लोकतंत्र का दंभ भरने वाले राजनेता और राजनीतिक दलों के लोग शामिल होते हैं। 
 
केंद्र की यूपीए सरकार के एक वरिष्ठ नेता(पीएमओ कार्यालय में राज्य मंत्री नारायण सामी और कांग्रस प्रवक्ता राशिद अल्बी) ने सरकार पर जनता द्वारा सवाल उठाने को राष्ट्र का अपमान बता दिया और यहां तक कह दिया कि विदेशी ताकतें इन्हें निर्देशित कर रही हैं।
दरअसल, वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के नेतृत्व में देश की जनता पिछले कुछ महीनों से भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़ रही है, जिसे टीम अन्ना के नाम से जाना जाता है। इस टीम ने देश में हर स्तर पर फैले भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए विधेयक का एक मसौदा तैयार किया, जिसे जन लोकपाल नाम दिया। टीम ने इस मसौदे को कानून का शक्ल देने की मांग की, सरकार ने साफ इनकार कर दिया। अपनी मांग को लेकर अन्ना को बार-बार अनशन भी करना पड़ा। 
एकबार तो अन्ना बारह दिनों तक अनशन पर रहे। सरकार ने संसद की भावना (सेंस ऑफ पार्लियामेंट) पारित करवाया और अन्ना की तीन अहम मांगों को ज्यों का त्यों मान लेने का वादा किया। मगर, जब नया सरकारी मसौदा बना तो सरकार अपने वादे से मुकरती दिखी। सरकार के मंत्री इस लहजे में बयान देने लगे कि मुझे जैसा लगा मैंने कर दिया, आप मेरी गर्दन पर बंदूक रखकर बात नहीं मनवा सकते और सरकार ने जनता की मांग मानने से इनकार कर दिया। सरकार ने अपने मसौदे में भ्रष्टाचारियों को बचाने और इसके खिलाफ आवाज उठाने वालों को कुचलने की पूरी व्यवस्था कर दी। जहां भ्रष्टाचार के खिलाफ शिकायत करने वालों को दो साल की सजा और भ्रष्टाचारी को छह महीने की सजा का प्रावधान किया गया। भ्रष्टाचारी के लिए सरकारी वकील की व्यवस्था की गई। 

जिससे देश की जनता को लगा कि सरकार भ्रष्टाचार को खत्म नहीं करना चाहती है। सरकार ने भ्रष्टाचार का विरोध करने वालों को सरकारी तंत्र का दुरुपयोग कर सताना शुरू किया। फिर तो टीम अन्ना इस तथ्य की पड़ताल में लग गई कि आखिर सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ना क्यों नहीं चाहती है। इसके लिए टीम अन्ना को बहुत ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्रियों और आरटीआई के तहत मिले दस्तावेजों का अध्ययन किया तो पाया कि सरकार के चौंतीस में से पंद्रह मंत्री भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे हैं। ऐसे में अगर जनलोकपाल जैसा कानून अस्तित्व में आता है तो इन मंत्रियों की जगह सरकार में नहीं बल्कि तिहाड़ में होगी। आखिर कौन सी सरकार अपनी ही गर्दन पर तलवार चलाएगी। इतना ही नहीं संसद में बैठे 162 से ज्यादा सांसदों पर भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं। आखिर ऐसे सांसद भला ऐसा कानून क्यों चाहेंगे, जो उन्हें ही जेल की हवा खिलाने लगे। यही वजह है कि संसद में बैठे लोग और सरकार ऐसा कोई कानून नहीं चाहती है। जनता को बेवकूफ बनाने के लिए वह कहने के लिए लोकपाल लाना चाहती है और खुद को भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे बड़े पैरोकार के रूप में भी पेश करना चाहती है। सरकार के जिन मंत्रियों पर टीम अन्ना ने भ्रष्टाचार के आरोप लगाए उनमें खुद प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह, पूर्व वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी, गृह मंत्री पी चिदंबरम, विदेश मंत्री एस एम कृष्णा, कृषि मंत्री शरद पवार, मानव संसाधन मंत्री और दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल, कानून मंत्री सलमान खुर्शीद, शहरी विकास मंत्री कमलनाथ, विज्ञान और तकनीकी मंत्री विलासराव देशमुख, भारी उद्योग मंत्री प्रफुल्ल पटेल, जहाजरानी मंत्री जी के वासन, अक्षय ऊर्जा मंत्री फारुख अब्दुल्ला, खाद और रसायन मंत्री एमके अलागिरी, ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे और पूर्व मंत्री वीरभद्र सिंह(कोर्ट में भ्रष्टाचार के आरोप तय होने के बाद दिया इस्तीफा) के नाम शामिल हैं। टीम अन्ना ने इन मंत्रियों के खिलाफ सबूत भी पेश करने का दावा किया है और सबूतों की एक-एक प्रति प्रधानमंत्री कार्यालय और सोनिया गांधी को भी भेजा। टीम ने मंत्रियों के ऊपर लगे आरोपों की जांच सुप्रीमकोर्ट के जज की अगुवाई में किसी स्वतंत्र जांच एजेंसी से कराने की मांग की है, मगर सरकार ने टीम अन्ना के आरोपों को खारिज कर दिया। 
 
इन मंत्रियों पर लगे आरोप बहुत ही गंभीर किस्म के हैं। देश के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी पर कम से कम पांच गंभीर आरोप हैं। राष्ट्रपति देश के प्रथम नागरिक होते हैं, उनके खिलाफ किसी प्रकार की जांच नहीं हो सकती है। उन्हें सिर्फ और सिर्फ महाभियोग से ही हटाया जा सकता है, जो बहुत ही जटिल प्रक्रिया होती है। जब संसद के 162 सदस्यों पर गंभीर आरोप है तो सवाल उठता है कि आखिर कौन उनके खिलाफ महाभियोग चलाने के लिए आगे बढ़ेगा। यही वजह है कि टीम अन्ना ने सरकार से बार-बार उन्हें राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार नहीं बनाए जाने की अपील की। लेकिन सरकार ने एक नहीं सुनी। और सरकार की नैतिकता के पतन के चलते भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरा एक व्यक्ति देश के सर्वोच्च पद तक पहुंच जाता है, जहां उसके खिलाफ आरोपों की जांच तक नहीं हो सकती है। सरकार का कहना था कि सिर्फ मीडिया रिपोर्टों के आधार पर किसी के खिलाफ जांच नहीं की जा सकती है। सरकार का ये कुतर्क कानून के खिलाफ हैं। अगर किसी पर गंभीर आरोप लगते हैं तो बिना सबूत उसपर मुकदमा दर्ज करने का प्रावधान है। पुलिस मामला दर्ज करके ही जांच शुरू करती है और सबूत इकट्ठा करती है। मगर सरकार ने जांच कराने से ही इनकार कर दिया(आखिर वो इनकार करेगी क्यों नहीं, जांच में मंत्रियों का फंसना तो तय है ही)। सरकार ने सलाह दी कि जिनको शिकायत है वो कोर्ट जाए। मगर सवाल है कि कोर्ट तो मामले की जांच नहीं करेगा ना। जांच करेगी वही जांच एजेंसियां जो सरकार के अधीन है और क्या वो सरकार के मंत्रियों के खिलाफ जांच करेगी। चिदंबरम के खिलाफ जांच करने से इनकार कर सीबीआई इसका सबूत पहले ही दे चुकी है। 

 
इन सबके बावजूद सरकार ने आरोपी मंत्रियों के खिलाफ एसआईटी बैठाने से साफ इनकार कर दिया। प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति बन गए। अब उनके खिलाफ जांच नहीं हो सकती है।
प्रणब मुखर्जी के खिलाफ आरोप गंभीर किस्म के हैं।
2007 में केंद्र सरकार ने गैर-बासमती चावलों के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया। नतीजा हुआ कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में चावल के दाम आसमान छूने लगे। जिसके कारण गरीब देशों में खाने का संकट उत्पन्न हो गया। तब जाकर भारत सरकार ने मानवीय आधार पर बाजार से कम कीमत पर बीस गरीब देशों को चावल देने की घोषणा की। मगर, भारत सरकार ने सीधे वहां की सरकारों को चावल निर्यात करने बजाय अमीरा फुड्स को चावल एक्सपोर्ट कर दिया और अमीरा फुड्स ने बाजार की कीमत पर वहां की सरकारों को चावल बेचा। जब घाना की सरकार बदली तो उसने इस मामले की जांच कराई। साथ ही घाना की सरकार ने भारत सरकार को पत्र लिखकर मामले की जांच कराने की मांग की। घाना की सरकार ने इस घोटाले में भारत के जिन मंत्रियों की भूमिका की जांच की मांग की वो हैं-- प्रणब मुखर्जी और आनंद शर्मा।
प्रणब मुखर्जी पर दूसरा आरोप नेवी वार रूम लीक मामले से जुड़ा हुआ है। जो कि देश के रक्षा मामलों से जुड़ा हुआ अत्यंत गंभीर मामला है।
आउटलुक की रिपोर्ट के मुताबिक, जुलाई 2007 में नेवी वार रूम से एक पेनड्राइव लीक हुई। पेन ड्राइव कमांडर विंग कमांडर एसएल सुरवे के घर से मिले। पेनड्राइव के दस्तावेजों में भारतीय सेना रक्षा खरीदारी, भारत की भावी रक्षा तैयारी की जानकारी थी। ये दस्तावेज अभिषेक वर्मा, रविशंकरन और कुलभूषण पराशर को दी गई। रविशंकरन नौसेना का रिटायर्ड लेफ्टिनेंट कमांडर है जिसने ये जानकारी स्कॉर्पियन पनडुब्बी के निर्माता थेल्स को ये जानकारी दी।
जुलाई 2005 में जब इस घोटाले का खुलासा हुआ तो दिसंबर 2005 में नौसेना ने आंतरिक जांच(सीबीआई जांच नहीं) के आदेश दिए। और इस जांच के आधार पर नेवी के तीन कमांडरों, विजेंद्र राणा, विनोद कुमार झा और कैप्टन कश्यप कुमार को बिना किसी मुकदमे के नेवी से निकाल दिया गया। इनके निष्कासन की वजह "राष्ट्रपति की इच्छा” बताई गई(ऐसी वजह जिसका इस्तेमाल नगण्य ही होता है)। इन पर रिश्वत लेकर गोपनीय दस्तावेज लीक करने का आरोप था, मगर बगैर मुकदमा चलाए इन्हें नौसेना से बाहर कर देना आश्चर्यजनक था। सच्चाई थी कि नेवी ने इतने बड़े मामले की जांच की जिम्मेदारी डेढ़ साल तक सीबीआई को नहीं सौंपी। इस मामले में आरोप है कि रविशंकरन को बचाने के लिए ही, जानबूझ कर इसकी जांच में देरी की गई।
सीएनएन-आईबीएन पर करण थापर के इंटरव्यू में तत्कालीन रक्षा मंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि इस पेन ड्राइव में देश की रक्षा से जुड़ी जानकारी नहीं थी, बल्कि व्यवसायिक जानकारी थी। जबकि डेढ़ साल बाद आई सीबीआई जांच रिपोर्ट में कहा गया है कि इस पेन ड्राइव में देश की रक्षा से जुड़ी अहम जानकारी थी। आखिर प्रणब मुखर्जी के झूढ की वजह क्या थी। क्या इसकी जांच इस देश के लिए जरूरी नहीं है. नवंबर 2005 में रविशंकरन सहित अन्य लोगों को देश से बाहर जाने दिया गया।
पेन ड्राइव में मौजूद जानकारी स्कॉर्पियन बनाने वाली कंपनी थेल्स तक पहुंच चुकी थी। अक्टूबर 2005 में 18000 करोड़ का स्कॉर्पियन पनडुब्बी सौदा हुआ। इस सौदे पर तत्कालीन रक्षा मंत्री प्रणब मुखर्जी ने हस्ताक्षर किया था।
आरोप है कि इस सौदे में दलालों ने अहम भूमिका निभाई थी। देश के कानून के तहत रक्षा सौदों में दलाली की अनुमति नहीं है। इस सौदे में अभिषेक वर्मा और स्कॉर्पियन बनाने वाली कंपनी थेल्स के बीच
ईमेलों का आदान-प्रदान हुआ। थेल्स कंपनी ने लिखा कि इस सौदे में 4 प्रतिशत की कमीशन मांगी जा रही है, जो संभव नहीं है इसलिए वो सरकार द्वारा नामित कांग्रेस पार्टी के खजांची या किसी ऐसे व्यक्ति से बातचीत करना चाहते हैं। जवाब में अभिषेक वर्मा ने लिखा कि वो ही इस सौदे में कांग्रेस पार्टी का प्रतिनिधित्व करेंगे। कुछ दिनों बाद थेल्स कंपनी चार प्रतिशत चार प्रतिशत का कमीशन देने के लिए तैयार हो गई। सवाल उठता है कि क्या प्रणब मुखर्जी को इसकी जानकारी थी। अगर नहीं तो प्रणब मुखर्जी इसकी जांच से कतरा क्यों रहे हैं। क्या देश की रक्षा से जुड़ी इतनी अहम जानकारी के विदेशी कंपनियों के हाथ पहुंचने के मामले की जांच देश के लिए जरूरी नहीं है।
प्रणब मुखर्जी पर एक और बड़ा आरोप है और वो है किसी स्वतंत्र वित्तीय जांच एजेंसी की जांच प्रक्रिया में बाधा डालने और देश की जनता के साथ धोखाधड़ी करने का।
सेबी के पूर्णकालिक सदस्य के एम अब्राहम ने प्रधानमंत्री को तीन पत्र लिखकर(जिसमें से एक पत्र आईटीआई के जरिए मीडिया में सार्वजनिक हो चुका है) कहा है कि वित्तमंत्री और उनके दफ्तर(प्रणब मुखर्जी और उनके दफ्तर पढ़ें) से उन पर दबाव डाला जा रहा है कि सेबी के अंदर कुछ मामलों को रफा-दफा कर दिया जाए। अब्राहम ने लिखा कि वो रिलायंस, सहारा और बैंक ऑफ राजस्थान के कुछ गंभीर मामलों की जांच कर रहे हैं, लेकिन उनके सीनियर उनसे सवाल करते हैं कि क्या आप उन मामलों को मैनेज कर सकते हैं और वो कई बार बातचीत में कह चुके हैं कि इसमें कुछ बड़े लोग, खासकर वित्तमंत्री इनमें रुचि ले रहे हैं। उन्होंने लिखा कि उनके सीनियर जब कभी वित्तमंत्री से मिलने दिल्ली जाते हैं तो वो सभी सदस्यों से सभी मामलों की रिपोर्ट बनाने कहते हैं- जो जांच प्रक्रिया में सीधा-सीधा हस्तक्षेप है। जब मैंने व्यक्तिगत प्रताड़ना की शिकायत की तो वो कई बार कह चुके हैं कि वो उस महिला को जानते हैं जो इसके पीछे है और वो है ओमिता पॉल- जो वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी की सचिव हैं। इस मामले में प्रधानमंत्री ने कुछ नहीं किया। उलटे अब्राहम जैसे अधिकारी को प्रताड़ित किया जा रहा है।
इतने आरोप अकेले प्रणब मुखर्जी(जो अब राष्ट्रपति बन चुके हैं) पर हैं। बाकी आरोपी मंत्रियों पर गंभीर किस्म के आरोप हैं। इन आरोपों की जांच होनी चाहिए थी लेकिन खुद कानून मंत्री टीम अन्ना पर आरोप लगा रहे हैं। ये कितना हास्यास्पद है कि सरकार अपने नागरिकों पर आरोप लगा रही है। जब टीम अन्ना पर आरोप है तो उन्हें जांच से कौन रोक रहा है। सरकार क्यों नहीं इन लोगों को न्याय के कटघरे तक पहुंचा रही है, क्यों नहीं सजा दिलवा रही है।
जब विद्रोही कडप्पा सांसद जगन मोहन की बारी आती है तो उन्हें छह महीने के भीतर जेल पहुंचा दिया जाता है, सीबीआई अति सक्रिय हो उठती है, मगर जब बारी लालू, मुलायम, मायावती की आती है तो दशकों तक फाइल दफ्तरों में धूल फांकती है। जब कभी समर्थन की जरूरत होती है तो सीबीआई सक्रिय हो उठती है। क्या आखिर यही सीबीआई अपने आहारदाता सरकार के मंत्रियों के खिलाफ लगे मुकदमों की जांच करेगी। क्या सीबीआई ने पहले कभी ऐसा किया है, जो आज करेगी।

जनता की निराशा अपने चरम तक पहुंच चुकी है। प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने के बाद तो जनता ने मान लिया कि बेशर्म हो चुकी सरकार भ्रष्टाचार को देश के सबसे ऊंचे पद पर प्रतिष्ठित कर सकती है। कई लोग को भ्रष्टाचार को वैधानिक दर्जा दिलाने की बात करते थे, मगर यूपीए की सरकार ने तो भ्रष्टाचार को राष्ट्रपति पद तक पहुंचा दिया। सरकार ने औपचारिक जांच कराकर मामले की लीपापोती करना भी उचित नहीं समझा और प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति बना दिया।

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