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रविवार, 19 अगस्त 2012

संस्कृत भाषा और भारत में वैज्ञानिक विकास, भाग-4


यह लेख सुप्रीमकोर्ट के पूर्व न्यायमूर्ति और भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काट्जू के उस अभिभाषण का अनुवाद है, जो उन्होंने 27 नवंबर 2011को काशी हिंदी विश्वविद्यालय, वाराणसी में दिया था।
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संस्कृत की सबसे पुरानी कृति ऋग्वेद है। इसकी रचना शायद ईसापूर्व 2000 साल पहले हुई थी। हालांकि, तब से ये मौखिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रही। गुरुकुलों में गुरु के साथ मंत्रोच्चार और सतत् अभ्यास के जरिए इसके श्लोकों को याद रखा जाता था। ऋग्वेद हिंदुओं का सबसे पवित्र ग्रंथ है और देवताओं, इंद्र, अग्नि, सूर्य, सोम, वरुण को समर्पित 1028 ऋचाएं हैं।
भाषा समय के साथ परिवर्तित होती रहती है। उदाहरण के लिए शेक्सपीयर के नाटकों को अच्छी व्याख्याओं के बगैर समझना मुश्किल है क्योंकि शेक्सपीयर ने सोलवीं सदी में इसकी रचना की थी, तब से अंग्रेजी भाषा में काफी बदलाव आया है। बहुत से शब्द और अभिव्यक्तियां जो उन समय प्रचलन में थे अब प्रचलन में नहीं है। इसलिए हम शेक्सपीयर की रचनाओं को अच्छी व्याख्याओं के बगैर नहीं समझ सकते हैं।
इसी तरह पिछले चार हजार सालों में संस्कृत भाषा में भी बहुत से बदलाव आए। ईसापूर्व पांचवीं सदी में महान वैयाकरणाचार्च पाणिनी, जो शायद विश्व के सबसे बड़े वैयाकरणाचार्य थे, ने अष्टाध्यायी(आठ अध्याय वाली पुस्तक) की रचना की थी। इस पुस्तक में पाणिनी ने संस्कृत के नियमों को निर्धारित किया। तब से संस्कृत में ज्यादा बदलाव की अनुमति नहीं दी गई। कात्यायन और पतंजलि ने थोड़े से बदलाव किए। कात्यायन ने वर्तिका नाम से पुस्तक लिखी और पतंजलि ने महाभाष्य नाम से अष्टाध्यायी की व्याख्या लिखी। इन दो बदलावों को छोड़ दें तो संस्कृत वैसी ही है, जैसा कि पाणिनी की संस्कृत यानी शास्रीय संस्कृत थी।
पाणिनी ने उस समय तक उपलब्ध संस्कृत भाषा की सभी कृतियों को सावधानीपूर्वक अध्ययन किया और फिर उन्होंने उनका परिष्करण, परिमार्जन और सुसंगठित किया ताकि इस भाषा को अत्यंत तार्किक, सुस्पष्ट और शिष्ट (Logic, precision and elegance) बनायी जा सके। इस तरह पाणिनी ने संस्कृत को अभिव्यक्ति का अति विकसित और शक्तिशाली वाहन बना दिया, जिसमें वैज्ञानिक सोच और सिद्धांतों को अत्यंत सुस्पष्टता और शिष्टता से अभिव्यक्त किया जा सकता है। इस भाषा को पूरे भारत में एक जैसा स्वरूप दिया गया ताकि पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण के विद्वान एक दूसरे की बात को आसानी से समझ सकें।
मैं यहां अष्टाध्यायी के बारे में विस्तार से चर्चा नहीं करूंगा, लेकिन इस संबंध में मैं एक उदाहरण दूंगा।
अंग्रेजी भाषा में ए से जेड तक के वर्णों को (वर्णमाला) किसी तार्किक या न्यायसंगत तरीके से नहीं रखा गया है। इसके पीछे कोई तर्क नहीं है कि एफ के बाद जी क्यों आता है या फिर पी के बाद क्यू को क्यों रखा गया है। अंग्रेजी के वर्णों को बेतरतीब तरीके से कहीं का कहीं रख दिया गया है। वहीं दूसरी ओर पाणिनी ने अपने पहले पंद्रह सूत्रों में, मानव द्वारा शब्दों के उच्चारण के ध्वनियों के आधार पर देवनागरी वर्णों को बहुत ही वैज्ञानिक और तार्किक ढंग से रखा है।
उदारहण के लिए, स्वर वर्ण, , , , , , ऊ ए, , , औ आदि के उच्चारण के समय मुखाकृतियों के आधार पर रखा गया है। अं और आ कंठ से उच्चरित होते हैं, इ और ई तालू से, ओ और औ ओठ से आदि। इसी तरह व्यंजन वर्णों को भी वैज्ञानिक तरीके से सजाया गया है। क-वर्ण में क, , , घ का उच्चारण कंठ से, -वर्ण, , , , झ का उच्चारण तालू से, -वर्ग के वर्णों का उच्चारण मुंह से और त-वर्ग के वर्णों का उच्चारण दांत से और प-वर्ग के वर्णों का उच्चारण ओष्ठ से होता है।
मेरे कहने का मतलब है कि दुनिया की किसी भी भाषा में वर्णों को इतने विवेकसंगत और सुसंगठित तरीके से नहीं रखा गया है। हमारे पूर्वजों ने वर्ण जैसी अत्यंत साधारण विषय को इतनी गंभीरता से लिया है तो आसानी से समझा जा सकता है कि उन्होंने और भी उच्चस्तरीय विषयों का कितनी गंभीरता से अध्ययन किया होगा।
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि पाणनी का संस्कृत शास्रीय संस्कृत कहलाता है यह वैदिक संस्कृत से अलग है। वैदिक संस्कृत वो हैं जिनमें वेद लिखे गए हैं।

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