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शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

हमेशा से रही है भारत में असहिष्णुताः नीति आयोग सदस्य विवेक देबरॉय

नीति आयोग के सदस्य और जाने-माने अर्थशास्त्री विवेक देबरॉय ने कहा है कि देश में असहिष्णुता पहले से मौजूद थी और यह तो भारतीयों के जीने के तरीके में शामिल है। उन्होंने कहा है कि अगर किसी ने भारतीयों की असहिष्णुता को नहीं पहचाना तो यह उसकी बेवकूफी है।

विवेक ने अपनी बात के लिए कई उदाहरण दिए हैं। उन्होंने कहा है, 'बहुत लोगों को नहीं पता होगा कि जगदीश भगवती को दिल्ली स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स (डीएसई) छोड़कर विदेश जाने पर मजबूर किया गया था। उनका जीवन दूभर कर दिया गया था। उन्होंने डीएसई छोड़ा क्योंकि वहां खास तरह के विचारों का माहौल है और आप उसका विरोध करते हैं तो आपका जीवन दूभर कर दिया जाता है।'

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विवेक ने अपनी बात के लिए दो और उदाहरण दिए। उन्होंने कहा, 'दूसरी पंचवर्षीय योजना के समय इसके परीक्षण के लिए अर्थशास्त्रियों की कमिटी गठित की गई थी। केवल डॉ. बीआर शेनॉय ने इस योजना का विरोध किया था। क्या आपने देश के नीति निर्धारकों में फिर कभी उनका नाम सुना? नहीं। उनका बहिष्कार कर दिया गया था। भारत में उन्हें कोई नौकरी नहीं मिली और उनकी मौत भी श्रीलंका में हुई।' विवेक ने कहा, 'पत्रकार अलेक्जैंडर कैंपबेल की एक किताब है, 'हार्ट ऑफ इंडिया'। संरक्षण प्राप्त यह किताब अब भी यह किताब भारत में बैन है, क्योंकि इसमें जवाहर लाल नेहरू, भारतीय समाजवाद और योजना आयोग पर आपत्तिजनक बातें लिखी हैं। जो लोग कहते हैं कि कोई बैन नहीं होना चाहिए, वे कभी 'हार्ट ऑफ इंडिया' की बात क्यों नहीं करते हैं।'

विवेक ने अपने अनुभव के बारे में बताया, 'मैंने कोलकाता के प्रेजिडेंसी कॉलेज में पढ़ाई की और नौकरी के लिए आवेदन किया तो अर्थशास्त्र विभाग के हेड दीपक बनर्जी ने कहा कि तुम्हें यहां नौकरी नहीं मिलेगी। वहां लेफ्ट ने ऐसा किया और मैं पुणे चला गया।' वह एक घटना का और जिक्र करते हैं, '2002 में मैंने राजीव गांधी इंस्टिट्यूट का हेड रहने के दौरान एक कॉन्फ्रेंस करवाई कि भारत को, इसके समाज को, इसका विचार कैसा होना चाहिए? इसमें मैंने 'ऑर्गनाइजर' के संपादक शेषाद्रि चारी को बुलाया तो मुझे 10 जनपथ से किसी का फोन आया कि मैडम आपसे बात करना चाहती हैं, आप चारी को न बुलाएं। मैंने कहा कि बुलावा भेज दिया गया है, मैडम बात करना चाहती हैं तो कर सकती हैं। 10 मिनट बाद फिर फोन आया कि क्या आप चारी से उनका भाषण लिखित में मांग सकते हैं, मैडम देखना चाहती हैं। मैंने कहा, नहीं। इसके बाद कांग्रेस के जाने-माने लोग उस कॉन्फ्रेंस में नहीं आए।'

विवेक बताते हैं, '2004 में लवीश भंडारी और मैंने राज्यों में आर्थिक स्वतंत्रता का अध्ययन किया। इसमें गुजरात नंबर एक था। 2005 में गुजरात में निगम चुनाव हो रहे थे और एक अखबार ने हेडिंग दी, 'कांग्रेसी थिंक टैंक ने मोदी के गुजरात को नंबर एक बताया'। मुझे फिर से मिसेज गांधी की ओर से फोन आया और कहा कि राजीव गांधी इंस्टिट्यूट को आगे से राजनीतिक चीजें छापने से पहले सोचना चाहिए। मैंने कहा कि मुझसे यह नहीं होगा और इस्तीफा दे दिया। अगले दिन मुझे अर्जुन सेनगुप्ता कमिशन से बाहर कर दिया गया। मैं योजना आयोग के लिए दो कमिटियों में था, वहां से भी बाहर निकाल दिया गया। किसी ने शिकायत की? मुझे केवल दो लोगों के नाम याद हैं। एक लवीश, वह तो बायस्ड कहा जाएगा क्योंकि वह इस अध्ययन का सह-लेखक था और एक पत्रकार सीता पार्थरसारथी। अब जो लोग अलग-अलग शिकायतें कर रहे हैं, तब उनमें से कोई नहीं बोला।'

विवेक का कहना है कि जो लोग कह रहे हैं कि असहिष्णुता बढ़ रही है, उनसे बहस करने का कोई फायदा नहीं है। वे कहेंगे कि असहिष्णुता तो बढ़ रही है और मैं कहूंगा कि इसके सबूत क्या हैं? उन्होंने कहा है कि देश की बौद्धिक जमात में तो हमेशा से असहिष्णुता रही है।

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