हिंदी शोध संसार

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

क्यों हुई साइरस मिस्त्री की छुट्टी?



टाटा ग्रुप से साइरस मिस्त्री को बड़े बेआबरू होकर जाना पड़ासाइरस मिस्त्री को हटाए जाने की खबर पर हर कोई अवाक् रह गया.. एसपी प्रमुख मुलायम सिंह भी अखिलेश के काम से नाराज थेमुलायम के दोस्त अमर सिंह और भाई शिवपाल भी अखिलेश से खुश नहीं थेमगर किसी में हिम्मत नहीं थी कि अखिलेश को यूं चलता कर दिया जाए.. लिहाजा परिवार में घमासान मचा है.. लेकिन साइरस मिस्त्री के मामले में तो कोई घमासान नहीं था.. उन्हें 30 साल के लिए चेयरमैन बनाया गया था.. लेकिन महज चार साल के भीतर उन्हें चलता कर दिया था..कोई वजह भी तो नहीं बताया गया.. बताया सिर्फ इतना जा रहा है कि टाटा ग्रुप साइरस मिस्त्री के कामकाज से खुश नहीं था.. आखिर टाटा ग्रुप साइरस मिस्त्री से खुश क्यों नहीं था.. गहराई से पड़ताल करें तो कई वजह सामने आ जाएंगी..
  1. प्रॉफिट पर ही नजर
    जो लोग टाटा समूह की कार्यप्रणाली को करीब से जानते हैंवो आसानी से समझ जाते हैं कि टाटा सोशल रिस्पॉन्सिबिलटी के तहत काम करता है और अपनी जिम्मेदारी को वो बखूबी समझता है.. इसे दुधारू गाय के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है.. जैसा कि दूसरी कंपनियां करती हैं.. साइरस मिस्त्री पर आरोप है कि उन्होंने टाटा ग्रुप को दुधारू गाय समझ रखा था और इसके दोहन में वो विश्वास करते थे.
  2. शेयरहोल्डर्स के साथ खराब व्यवहार
    साइरस की प्रॉफिट मेकिंग पॉलिसी का खामियाजा सीधे-सीधे शेयरधारकों को भुगतना पड़ाइसी साल अगस्त में टाटा मोटर्स के शेयरहोल्डर्स ने शिकायत की थी कि उन्होंने प्रति शेयर सिर्फ 20 पैसे का लाभांश मिला.. शिकायत बड़ी थी.. लेकिन साइरस मिस्त्री ने इसे गंभीरता से नहीं लिया.. और कह दिया कि वो जुटाई गई पूंजी को नए प्रॉडक्ट्स में लगा रहे हैं.. लिहाजा लॉन्ग रन में चिंता करने वाली कोई बात नहीं है.
  3. कंपनी के ग्रोथ की कोई योजना नहीं
    साइरस मिस्त्री चाहते थे कि अगले दस साल में टाटा ग्रुप दुनिया की टॉप-25 कंपनियों में शुमार हो जाए.दुनिया की एक चौथाई आबादी तक इसकी पहुंच हो.. लेकिन साइरस मिस्त्री के पास इसकी कोई ठोस कार्ययोजना नहीं थी..
  4. समूह का उलझा हुआ ढांचा
    टाटा समूह की कंपनियों में क्रॉस ऑनरशिप है.. समूह की एक कंपनी का दूसरी कंपनी में पैसा लगा हुआ है.. दूसरा समूह की कार्यप्रणाली में नौकरशाही का दबदबा है..
  5. फैसले लेने में देरी
    कई मामलों में साइरस ने फैसले लेने में काफी देरी की.. बताया जा रहा है कि 2014 में कार्ल स्लिम की मौत के बाद टाटा मोटर्स में सीईओ की नियुक्ति में उन्होंने काफी देरी की..ऐसी कई वजह थीं.. जिसके चलते वो कारोबार की लीडरशिप में कोई जान नहीं फूंक पाए..
  6. स्लोलर्नर
    बताया जा रहा है कि साइरस मिस्त्री टाटा समूह की विविधाओं और जटिलताओं को आखिरी समय तक नहीं समझ पाए.. वो टाटा की तकनीक और उसकी सामाजिक समस्याओं को समझने में काफी देरी की..

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

'देश इतना कमजोर नहीं कि कुछ नारों से टूट जाए'

'साला सब पॉलिटिक्स है.. यूपी चुनाव करीब है.. इसलिए सब बीजेपी करवा रही है..'
'नारे लगाने वाले तो साफ साफ दिख रहे हैं.. इसमें बीजेपी वाले कहां है.. अगर बीजेपी वाले हैं तो दूसरे लोग उन्हें चुप करा सकते थे..'
'इससे क्या हो जाएगा..?'
'इससे क्या हो जाएगा..? देश टूट जाएगा'
'देश इतना कमजोर नहीं है कि ये किसी के नारे से टूट जाए'
"हम लोग ज्यादा बुद्धिमान हो गए हैं इसलिए ये बात कह रहे हैं.. अगर सेना का एक जवान पीठ दिखाकर सरहद से भाग आए तो साथी जवान उसे गोली मार देते हैं.. उसका कोर्ट मार्शल हो जाता है.. और हम नारों की स्वतंत्रता की चाहत रखते हैं"

देशभर में ऐसी बहस तेज है.. मुट्ठीभर लोग नारे लगा रहे हैं.. मुट्ठी भर लोग उसे सही ठहरा रहे हैं.. लेकिन ज्यादातर देशवासी देशद्रोहियों की गतिविधियों से आहत हैं.. जिस यूनिवर्सिटी से देश का भविष्य निकलने की उम्मीद पाले हुए हैं.. उस यूनिवर्सिटी में देशद्रोही पल रहे हैं.. देश के टुकड़े करने की बात कर रहे हैं.. हाल एक दो नहीं कई यूनिवर्सिटीज का है.. पहले जेएनयू और अब यादवपुर यूनिवर्सिटी का वीडियो सामने आया है.. संसद पर हमला करने वाले आंतकियों की शहादत को सलाम किया जा रहा है.. उनके कातिलों (ये कातिल कौन हैं.. भारत सरकार, देश की अदालत) से बदला लेने की बात कही जा रही है.. इन देशद्रोहियों ने जो नारे लगाए उनके नमूने तो देखिए-
  • “पाकिस्तान जिंदाबाद”
  • “गो इंडिया गो बैक”
  • “भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी जारी”
  • “कश्मीर की आजादी तक जंग रहेगी जारी”
  • “अफ़ज़ल हम शर्मिन्दा है तेरे कातिल ज़िंदा हैं”
  • “तुम कितने अफजल मरोगे, हर घर से अफ़ज़ल निकलेगा”
  • “अफ़ज़ल तेरे खून से इन्कलाब आयेगा”                   इस देश में भगत सिंह के खून से इंकलाब नहीं आया.. सुभाष चंद्रबोस के कून से इंकलाब नहीं आया.. ये देशद्रोही अफजल, मकबूल और याकूब जैसे आंतकियों के खून से इंकलाब लाना चाहते हैं..  देशद्रोही तो देशद्रोही ठहरे हमारे नेता (इन्हें देश के माथे पर कलंक कहिए) अभिव्यक्ति का हवाला देकर इन देश द्रोहियों का बचाव कर रहे हैं.. इनमें एक नहीं, तमाम सेक्युलर पार्टियों के नेता (कम्युनल बीजेपी?) को छोड़ दें तो शामिल हैं.. राहुल गांधी, सीताराम येचुरी, वृंदा करात, नीतीश कुमार, केसी त्यागी, अरविंद केजरीवाल, लालू प्रसाद सब के सब शामिल हैं.. अमित शाह ने राहुल से पूछा--
    इन छात्रों को सही ठहराकर राहुल गांधी किस लोकतांत्रिक व्यवस्था की वकालत कर रहे हैं. क्या राहुल गांधी के लिए राष्ट्रभक्ति की परिभाषा यही है ? देशद्रोह को छात्र क्रान्ति और देशद्रोह के खिलाफ कार्यवाही को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुठाराघात का नाम देकर उन्होंने राष्ट की अखण्डता के प्रति संवेदनहीनता का परिचय दिया है. मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि इन नारों का समर्थन करके क्या उन्होंने देश की अलगाववादी शक्तियों से हांथ मिला लिया है ? क्या वह स्वतंत्रता की अभिवक्ति की आड़ में देश में अलगाववादीयों को छूट देकर देश का एक और बटवारा करवाना चाहते है?
    देश की राजधानी में स्थित एक अग्रणी विश्वविद्यालय के परिसर को आतंकवाद और अलगाववाद को बढ़ावा देने का केंद्र बना कर इस शिक्षा के केंद्र को बदनाम करने की साजिश की गयी. मैं राहुल गांधी से पूंछना चाहता हूं कि क्या केंद्र सरकार का हांथ पर हांथ धरे बैठे रहना राष्ट्रहित में होता ? क्या आप ऐसे राष्ट्रविरोधियों के समर्थन में धरना देकर देशद्रोही शक्तियों को बढ़ावा नहीं दे रहे है ?
    देश की सीमाओं की रक्षा और कश्मीर में अलगाववाद को नियंत्रित करते हुए हमारे असंख्य सैनिक वीरगति को प्राप्त हो चुके है. 2001 में देश की संसद में हुए आतंकवादी हमले में दिल्ली पुलिस के 6 जवान, 2 संसद सुरक्षाकर्मी और और एक माली शहीद हुए थे.
    इसी आतंकी हमले के दोषी अफ़ज़ल गुरू का महिमा मंडल करने वालों और कश्मीर में अलगाववाद के नारे लगाने वालों को समर्थन देकर राहुल गांधी अपनी किस राष्ट्रभक्ति का परिचय दे रहे है? मैं उनसे पूंछना चाहता हूं कि अभी हाल में सियाचिन में देश की सीमा के प्रहरी 9 सैनिकों जिनमे लांस नायक हनुमंथप्पा एक थे के बलिदान को क्या वह इस तरह की श्रद्धांजली देंगे ?
    अमित शाह ने कहा कि मोदी की सफलता से कांग्रेस में घोर हताशा और निराशा है.. इस हताशा में वो देश हित और देश विरोध भूल गए हैं.. 
    अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कुछ भी कहने की आजादी कैसे दी जा सकती है.. इन देशद्रोहियों को ऐसा सबक सिखाया जाए.. कि वो फिर से देश तोड़ने की बात न करेंगे.. 

    जिस सियाचीन को हमने कभी नहीं देखा.. ना कभी हम देखेंगे.. उस निर्जन शीत रेगिस्तान के लिए हमारे करीब 1000 से ज्यादा जवान अब तक क्यों शहीद हुए.. क्यों लांस नायक हनुमंतथप्पा ने अपने प्राणों की आहूति दे दी.. क्यों एक-एक जवान पर सरकार करोड़ों खर्च कर रही है.. क्यों हमने इतनी बड़ी सेना खड़ी कर रखी है.. इसलिए कि दिल्ली के सीने पर बैठकर देशद्रोदी देश को तोड़ने की कसमें खाएं.. आतंकियों की मौत का बदला देने के लिए तकरीरें दे... 
    अब तक ये कहा जा रहा था कि नारेबाजी करने में जेएनयू छात्र संघ का नेता कन्हैया कुमार शामिल नहीं था.. लेकिन उसका भी नया वीडियो आ गया है.. जेएनयू के इन देशद्रोहियों के बचाव में उतरा है.. जेएनयू टीचर्स एसोसिएशन.. जो टीचर्स एसोसिएशन यूनिवर्सिटी में ऐसी गतिविधियों को बढ़ावा देता हो वो तो बचाव में उतरेगा ही..  
    ऐसा नहीं है कि जेएनयू में सारे टीचर्स एक जैसे हैं.. कई टीचर्स हैं ऐसे भी हैं.. जो पढ़ाना चाहते हैं.. और देशद्रोही छात्र और टीचर्स उन्हें पढ़ाने और छात्रों को पढ़ने नहीं देते हैं.. ऐसे लोगों को एक्सपोज करना और उनपर कड़ी कार्रवाई करना जरूरी है.. ये टीचर्स आतंकियों से मिले हैं.. आइये सुनते हैं एक टीचर का खुलासा..  

    हर छात्र का हर साल तीन साल की सब्सिडी सिर्फ इसलिए दी जाती है कि यहां आतंकवादियों के नर्सरी तैयार हो.. यह दुर्भाग्यपूर्ण है.. और इससे निपटने बेहद जरूरी है..

     
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रविवार, 8 नवंबर 2015

Marxist historians are perpetrators, not victims of intolerance

DR DAVID FRAWLEY

They have rejected scholarly views that opposed their historical theories primarily on political grounds.

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Some years ago, I began studying the Vedas in Sanskrit as part of an examination of Sri Aurobindo's teachings. It soon became clear to me that historical interpretations of ancient India based upon the Aryan invasion theory, with the idea that the Vedic people came from Central Asia, were incorrect.
I noted over a hundred references to the ocean in the oldest Rig Veda alone, including ships upon the sea and the image of the cosmic ocean. I concluded that Vedic culture, whenever it existed, must have been located by the sea. Naturally, this refuted the idea in history books that the Vedic people were invading nomads from the northwest. This led further research in the field, and caused me a to write number of books on the subject.
Strangely, though my political views were considered to be of the progressive kind in the US, where I resided, I found myself being called a fascist by leftist groups in India merely for opposing the Aryan invasion theory. How following great yogis like Sri Aurobindo made me a "fascist" opened my eyes as to how Indian Marxists deal with dissent. I soon discovered that historical studies in India were dominated by the far left, which had its own investment in power. I learned that other scholars who challenged Marxist historians in India were subject to the same type of personal attacks.
Marxist politics of history
Marxist scholars in India like Romila Thapar and Irfan Habib have, until recently, controlled the interpretation of ancient India at an institutional level. Being Marxists, there is naturally little of yoga or dharma in their views, and not much regard for any indigenous tradition of India. Chinese communists similarly rejected the Dalai Lama and Chinese Buddhism as fascist.
Marxists dictated historical studies in communist and socialist countries like the Soviet Union and China, using history for propaganda to promote class warfare, which became caste warfare in India. Today Marxist historians have been removed from power in Russia, which has gone back to honouring its Tsars, and the Chinese are taking up Confucius and Buddhism. It is time for India's Marxist historians to go the way of history as well.
These same Marxist intellectuals have ignored solid archaeological evidence, like the work of Prof BB Lal, former director of the Archaeological Survey of India (ASI), who similarly found a Vedic connection with ancient India. They have tried to ignore and discredit the work of the Geological Survey of India (GSI) and its extensive data on ancient river systems according to which the Vedic Saraswati river dates from before 2000 BCE and was the main centre of civilisation in the country.
Marxists have rejected such scholarly views that opposed their historical theories primarily on political grounds, not owing to their own research in archaeology or geology. Almost every scholar, in the East or West, who has questioned the Marxist view of ancient India has been subject to political, if not personal defamation by the same leftist scholars who today portray themselves as the victims of intolerance. They have not been the victims but rather the perpetrators of intolerance for decades.
Marxism is not an approach based upon reason or cultural sensitivity but puts political ideology above the pursuit of knowledge. It lacks the deeper insight necessary to understand India's great civilisation and its dharmic traditions.
Behind the charge of intolerance
So when Indian Marxists speak of intolerance, particularly relating to historical issues, we must take a good look at their own biases and their efforts to suppress evidence and inhibit any scholarship that does not agree with them.
A few years ago, I was part of a conference explaining the Vedic view of ancient India at the Jawaharlal Nehru University (JNU), the hotbed of Marxist thought in India. At the end of the session, one of the students stated that our conference had presented a convincing case as to why ancient India was Vedic, but emphasised that such information "should be suppressed, even if it is true, because it is advantageous to Hindu political groups".
We see the same mentality today. It is not a question of truth but loss of power and patronage that motivates the charge of intolerance from eminent Marxist historians.

शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

हमेशा से रही है भारत में असहिष्णुताः नीति आयोग सदस्य विवेक देबरॉय

नीति आयोग के सदस्य और जाने-माने अर्थशास्त्री विवेक देबरॉय ने कहा है कि देश में असहिष्णुता पहले से मौजूद थी और यह तो भारतीयों के जीने के तरीके में शामिल है। उन्होंने कहा है कि अगर किसी ने भारतीयों की असहिष्णुता को नहीं पहचाना तो यह उसकी बेवकूफी है।

विवेक ने अपनी बात के लिए कई उदाहरण दिए हैं। उन्होंने कहा है, 'बहुत लोगों को नहीं पता होगा कि जगदीश भगवती को दिल्ली स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स (डीएसई) छोड़कर विदेश जाने पर मजबूर किया गया था। उनका जीवन दूभर कर दिया गया था। उन्होंने डीएसई छोड़ा क्योंकि वहां खास तरह के विचारों का माहौल है और आप उसका विरोध करते हैं तो आपका जीवन दूभर कर दिया जाता है।'

ब्लॉग: जब आप 'सहते' हैं तो दूसरों को 'बुरा' कहते हैं

विवेक ने अपनी बात के लिए दो और उदाहरण दिए। उन्होंने कहा, 'दूसरी पंचवर्षीय योजना के समय इसके परीक्षण के लिए अर्थशास्त्रियों की कमिटी गठित की गई थी। केवल डॉ. बीआर शेनॉय ने इस योजना का विरोध किया था। क्या आपने देश के नीति निर्धारकों में फिर कभी उनका नाम सुना? नहीं। उनका बहिष्कार कर दिया गया था। भारत में उन्हें कोई नौकरी नहीं मिली और उनकी मौत भी श्रीलंका में हुई।' विवेक ने कहा, 'पत्रकार अलेक्जैंडर कैंपबेल की एक किताब है, 'हार्ट ऑफ इंडिया'। संरक्षण प्राप्त यह किताब अब भी यह किताब भारत में बैन है, क्योंकि इसमें जवाहर लाल नेहरू, भारतीय समाजवाद और योजना आयोग पर आपत्तिजनक बातें लिखी हैं। जो लोग कहते हैं कि कोई बैन नहीं होना चाहिए, वे कभी 'हार्ट ऑफ इंडिया' की बात क्यों नहीं करते हैं।'

विवेक ने अपने अनुभव के बारे में बताया, 'मैंने कोलकाता के प्रेजिडेंसी कॉलेज में पढ़ाई की और नौकरी के लिए आवेदन किया तो अर्थशास्त्र विभाग के हेड दीपक बनर्जी ने कहा कि तुम्हें यहां नौकरी नहीं मिलेगी। वहां लेफ्ट ने ऐसा किया और मैं पुणे चला गया।' वह एक घटना का और जिक्र करते हैं, '2002 में मैंने राजीव गांधी इंस्टिट्यूट का हेड रहने के दौरान एक कॉन्फ्रेंस करवाई कि भारत को, इसके समाज को, इसका विचार कैसा होना चाहिए? इसमें मैंने 'ऑर्गनाइजर' के संपादक शेषाद्रि चारी को बुलाया तो मुझे 10 जनपथ से किसी का फोन आया कि मैडम आपसे बात करना चाहती हैं, आप चारी को न बुलाएं। मैंने कहा कि बुलावा भेज दिया गया है, मैडम बात करना चाहती हैं तो कर सकती हैं। 10 मिनट बाद फिर फोन आया कि क्या आप चारी से उनका भाषण लिखित में मांग सकते हैं, मैडम देखना चाहती हैं। मैंने कहा, नहीं। इसके बाद कांग्रेस के जाने-माने लोग उस कॉन्फ्रेंस में नहीं आए।'

विवेक बताते हैं, '2004 में लवीश भंडारी और मैंने राज्यों में आर्थिक स्वतंत्रता का अध्ययन किया। इसमें गुजरात नंबर एक था। 2005 में गुजरात में निगम चुनाव हो रहे थे और एक अखबार ने हेडिंग दी, 'कांग्रेसी थिंक टैंक ने मोदी के गुजरात को नंबर एक बताया'। मुझे फिर से मिसेज गांधी की ओर से फोन आया और कहा कि राजीव गांधी इंस्टिट्यूट को आगे से राजनीतिक चीजें छापने से पहले सोचना चाहिए। मैंने कहा कि मुझसे यह नहीं होगा और इस्तीफा दे दिया। अगले दिन मुझे अर्जुन सेनगुप्ता कमिशन से बाहर कर दिया गया। मैं योजना आयोग के लिए दो कमिटियों में था, वहां से भी बाहर निकाल दिया गया। किसी ने शिकायत की? मुझे केवल दो लोगों के नाम याद हैं। एक लवीश, वह तो बायस्ड कहा जाएगा क्योंकि वह इस अध्ययन का सह-लेखक था और एक पत्रकार सीता पार्थरसारथी। अब जो लोग अलग-अलग शिकायतें कर रहे हैं, तब उनमें से कोई नहीं बोला।'

विवेक का कहना है कि जो लोग कह रहे हैं कि असहिष्णुता बढ़ रही है, उनसे बहस करने का कोई फायदा नहीं है। वे कहेंगे कि असहिष्णुता तो बढ़ रही है और मैं कहूंगा कि इसके सबूत क्या हैं? उन्होंने कहा है कि देश की बौद्धिक जमात में तो हमेशा से असहिष्णुता रही है।

गुरुवार, 5 नवंबर 2015

Intolerance has always existed: Niti Aayog’s Bibek Debroy

Niti Aayog's member Bibek Debroy is a renowned economist who is known for speaking his mind. In an interview to TOI, Debroy reflects on the issue of intolerance and cites examples to show the need for multiple views. Excerpts:

Q: A debate has been raging on the issue of intolerance in the country. What has been your experience?

A: What is generally not known is that Jagdish Bhagwati was essentially made to leave Delhi School of Economics and had to go abroad because his life was made very uncomfortable. He left DSE because there is a certain prevailing climate of opinion and if you buck that, your life is made uncomfortable.

In the course of the second five-year plan, a committee of economists was set up to examine it. Dr B.R. Shenoy was the only one who opposed it. Do you find Dr Shenoy's name mentioned in the history of union policymaking? No. He was completely ostracized. He could not get a job in India and he ended up in Ceylon.

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The third is a book called 'Heart of India', written by Alexander Campbell who was a journalist. A patronizing book for that day and time but it is still banned in India because it says frivolous things about Jawaharlal Nehru, socialism in India, and the Planning Commission. People who say there should not be bans, why don't they ever mention 'Heart of India'.

I cited these three examples to drive home the point that intolerance has always existed and we will be stupid if we haven't recognized it.

Q: At a personal level, did you ever experience intolerance in the academic arena?

A: I studied at Presidency College in Kolkata and in a real sense my first job was there at its Centre for Research. Then it was time for me to apply for a proper job, meaning Department of Economics. The head of the department was Dipak Banerjee, who told me you are not going to get a job, just forget it. Remember it was the Left. All the experts are Left-wing. So, I went off to Pune.

Q: How do you view the Rajiv Gandhi Institute, which you once headed, holding this conference on the issue of intolerance?

A: I was there for eight years and during that period we consciously distanced ourselves from the Congress. In 2002, I decided to organize a conference on what India was supposed to be, what its society be like, what the idea of India would be? I invited Seshadri Chari who was the editor of Organiser. Several people from the Left also came.

On the day of the seminar, a paper front-paged a report 'Congress think tank invites editor of Organiser." I get a phone call from 10, Janpath. Not Mrs Gandhi. "Madam has asked me to speak to you. Please withdraw this invitation to Seshadri Chari." I said I have issued the invitation and if Madam wants to talk to me, let her talk to me. Ten minutes later the phone rings again. "Will you please ask Seshadri Chari to give in writing what he is going to speak?" I said I am not going to do that. "No, Madam wants to see it."

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Again the phone rings. "What happens if Seshadri Chari goes ahead and speaks about Godhra?" Meanwhile, all hell broke loose and some noted Congress people dropped out because Seshadri Chari was invited. I held the conference.

In 2004, Loveesh Bhandari and I did a study on economic freedom rating of states. Gujarat was number one. In 2005, municipal elections were being held in Gujarat and a newspaper carried a front page story, 'Congress think tank ranks Modi's Gujarat as number one', and all hell broke loose. I got a note from Mrs Gandhi saying anything that the Rajiv Gandhi Institute publishes henceforth be politically vetted. I said this is not acceptable to me. I resigned.

There was an Arjun Sengupta Commission. Next day, I was thrown out of there. I was on two task forces of Planning Commission, I was thrown out of there. Did anyone complain? I only remember two people. One is Loveesh, he was biased because he was the co-author, and the other was a journalist, Seetha Parthasarathy. All these people who are complaining about different points of view, none of them raised their voices.

The intellectual discourse has been captured by a certain kind of people, with certain kinds of views. It is a bit like a monopoly and that monopoly does not like outsiders and that monopoly survives on the basis of networks.

Q: A section of academics has raised the issue of growing intolerance. Do you think they have a point or is it because they are politically aligned?

A: If you tell me intolerance is increasing, it is purely anecdotal and is purely a subjective perception, there is no point in arguing with you because you will say it is increasing and I will say there is no evidence of it increasing. The only way I can measure something is that if I have got some quantitative indicator. If I look at any quantitative indictor, communal violence incidents, internet freedom, these are objective indicators, and I don't think it is increasing. In the intellectual circuit there has always been that intolerance. Let's not pretend otherwise.

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

वक़्त की नब्ज़ : इस विरोध का गणित


प्रधानमंत्री को खुल कर हमारे बुद्धिजीवी फासीवादी कहते हैं रोज टीवी पर, मोहम्मद अखलाक की हत्या का दोष तक उनके सिर लगाते हैं, और बिहार में जितने भी इल्जाम...

शुरू में ही कह देना चाहती हूं मैं कि बोलने-लिखने की जितनी आजादी नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद देखने को मिली है, मैंने पहले कभी नहीं देखी। प्रधानमंत्री को खुल कर हमारे बुद्धिजीवी फासीवादी कहते हैं रोज टीवी पर, मोहम्मद अखलाक की हत्या का दोष तक उनके सिर लगाते हैं, और बिहार में जितने भी इल्जाम उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी चुनाव अभियान के दौरान लगाते हैं, चाहे झूठे हों या सच्चे, उनको पूरी कवरेज मीडिया में मिल रही है। लेकिन फिर भी देश के इन महान बुद्धिजीवियों को लग रहा है कि भारत में अब बोलने-लिखने की आजादी नहीं रही। बुद्धिजीवियों की रोज कोई नई टोली निकल पड़ती है विरोध जताने, सो पिछले हफ्ते फिल्म निर्माता सम्मान वापस करने निकल कर आए, एक-दो वैज्ञानिक आए साथ में और अगले दिन इतिहासकार भी शामिल हो गए मुखालफत की इस लहर में।
पत्रकारिता की दुनिया में पहला कदम मैंने रखा 1975 में, सो कई प्रधानमंत्री के शासनकाल देखे हैं मैंने। तो सुनिए क्या होता अगर इस तरह का विरोध उनके दौर में होता। इंदिरा गांधी के जमाने में पहले तो प्रेस पर पूरा प्रतिबंध यानी सेंसरशिप देखी मैंने इमरजेंसी के वक्त और जब इमरजेंसी नहीं रही तो यह भी देखा कि उनके प्रेस सचिव शारदा प्रसाद के पास एक फेहरिस्त हुआ करती थी, जिसमें उन पत्रकारों के नाम दर्ज थे, जिन्होंने प्रधानमंत्री के खिलाफ लिखने की हिम्मत की थी। इमरजेंसी के दौरान तो कई पत्रकार तिहाड़ जेल पहुंचा दिए गए थे।
फिर जब आया उनके बेटे का दौर और इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने विरोध करने की कोशिश की उनका बोफर्स वाले मामले को लेकर तो सौ से ज्यादा टैक्स के मुकदमे लगाए गए इस अखबार पर। सोनिया के दौर में तो निजी तौर पर मेरे ऊपर हमले हुए। सोनियाजी के अघोषित प्रधानमंत्री होने पर जब मैंने एतराज जताया तो मेरे कॉलम को इंडियन एक्सप्रेस से हटाने की कोशिश हुई। इसमें जब सोनियाजी नाकाम रहीं तो मेरे दोस्तों को तकलीफ दी गई। ये दौर याद होंगे हमारे बुजुर्ग बुद्धिजीवियों को, सो यह भी याद होगा कि उन्होंने अपनी आवाज नहीं उठाई कभी। उठाते अगर तो कहां से मिलने वाले थे वे सम्मान, वे विदेशों के दौरे, वे लटयंस दिल्ली की गलियों में आलीशान कोठियां?
कहने का मतलब यह है कि हमारे बुद्धिजीवी बहुत सोच-समझ कर विरोध करते हैं। इनमें से एक ने भी यह नहीं कहा कि उनकी किसी किताब या फिल्म पर मोदी सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया है, लेकिन फिर भी कहते फिर रहे हैं कि उनकी आजादी खतरे में है, क्योंकि कर्नाटक में कलबुर्गी को मार दिया गया था। इसमें दो राय नहीं कि कलबुर्गी की हत्या शर्मनाक थी, लेकिन जब केरल में जिहादियों ने प्रोफेसर जोसेफ के हाथ काट डाले थे, क्या हमने इन साहित्यकारों का कोई विरोध देखा? प्रोफेसर जोसेफ के हाथ सिर्फ इसलिए काट डाले पापुलर फ्रंट आॅफ इंडिया के जिहादियों ने, क्योंकि किसी एक पाठ में इस्लाम के रसूल का जिक्र था। बस तय कर लिया कि प्रोफेसर साहब को सजा देने का हक है, सो दे दी। प्रोफेसर साहब की कहानी अगर छपी देश के बड़े अखबारों में, तो इतनी छोटी कि न छपने के बराबर।
उदाहरण एक और है मेरे पास, जो साबित करता है कि अपने बुद्धिजीवी धोखेबाज हैं और उनका गुस्सा सिर्फ तमाशा है। इस देश में सिर्फ एक बार किसी कौम को उसके धर्म की वजह से किसी राज्य से भगा दिया गया- जब पंडितों को कश्मीर घाटी से बेदखल कर दिया गया। बीस वर्ष गुजर गए हैं तब से लेकर आज तक, लेकिन हमारे बुद्धिजीवियों को इस घटना से अगर तकलीफ हुई, तो उन्होंने उसे बहुत छिपा के रखा।
समस्या उनकी एक ही है मोदी के दौर में और उस समस्या का नाम है नरेंद्र मोदी। जब तक वे प्रधानमंत्री बने रहते हैं तब तक ऐसे विरोध-प्रदर्शन होते रहेंगे भारत में, क्योंकि हमारे देश के बुद्धिजीवियों को बड़े प्यार से पाला है दशकों से कांग्रेस पार्टी ने। उनको न सिर्फ इज्जत और सम्मान मिला है, उनको नौकरियां, कोठियां, सरकारी ओहदे भी मिले हैं, सो मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद उनकी पूरी दुनिया लुट गई है। पूर्व प्रधानमंत्रियों का समर्थन इन लोगों ने यह कह कर किया था कि उनकी विचारधारा से उनकी अपनी विचारधारा मेल खाती थी।
सेक्युलरिज्म के कवच के पीछे खूब आर्थिक लाभ भी मिलता था। जब इन लोगों की किताबें नहीं बिकती थीं या उनके बिकने से इतने थोड़े पैसे मिलते थे कि गुजारा करना मुश्किल था, तो साथ दिया करते थे दिल (और तिजोरियां) खोल कर मानव संसाधन विकास मंत्री महोदय।
राजीव गांधी ने अर्जुन सिंह को इस मंत्रालय में बिठाया तभी से परंपरा चली आ रही है बुद्धिजीवियों को पालने-पोसने की। कभी दिल्ली में कोठी देने का काम होता था, तो कभी किसी सरकारी संस्था की अध्यक्षता मिल जाया करती थी। ऊपर से प्रधानमंत्री निवास या दस जनपथ से हर दूसरे-तीसरे दिन न्योते आते थे किसी विदेशी मेहमान से मुलाकात करने के। इसका फायदा यह होता था कि विदेशी मेहमान इन लेखकों को अपने वतन आने का दावत दे दिया करते थे और दौरे का तमाम खर्चा उठाया करती थी कोई न कोई विदेशी सरकार।
इस तरह के विदेशी दौरों पर गए हैं साहित्यकार, कलाकार, इतिहासकार और अन्य किस्म के बुद्धिजीवी कई-कई बार। मोदी के आने के बाद ये तमाम नेमतें औरों को मिल रही हैं। सो, झगड़ा सिर्फ विचारधारा का नहीं है। झगड़ा विचारों का भी नहीं है। झगड़ा सीधे तौर पर रोजी-रोटी का है। सम्मान वापसी की इस लहर के पीछे यह है असली राज।

शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

Indian writers guilty of double standards when it comes to dissent: Taslima Nasrin

The number of writers who have returned their Sahitya Akademi awards is now almost 30. The government has called their protest a manufactured protest. Now noted Bangladeshi writer and exile Taslima Nasrin has also entered the fray. In an interview to TOI's Sagarika Ghose she asks why writers were silent when she was being persecuted.

What is your response to the fact that so many writers in India have returned their Sahitya Akademi awards?

Writers have decided to protest against injustices by returning their awards. There is nothing wrong with it. Sometimes somebody gets an idea, others like it.

Do you agree with the government that this is a manufactured protest with a political agenda?

I do not think so. Writers are politically and socially conscious people.

Do you feel the writers were silent when you were targeted?

Most writers were silent when my book was banned in West Bengal, when 5 fatwas were issued against me in India, when I was thrown out of West Bengal, when I was kept under house arrest in Delhi for months and was forced to leave India, when my mega serial for TV was banned. I have been struggling alone for the right to live here and for my freedom of expression. Not only they were silent, famous writers like Sunil Ganguly and Shankha Ghosh appealed to Buddhadeb Bhattacharya, the then CM of West Bengal, to ban my book.

Are writers guilty of double standards when it comes to dissent?

Yes, I agree. Many writers are guilty of double standards when it comes to dissent.


Is intolerance rising in India —Dadri lynching for example?

Yes, I am afraid so.

You recently tweeted that there's a problem with the way secularism has been practised in India ...

Yes. Most secular people are pro-Muslims and anti-Hindu. They protest against the acts of Hindu fundamentalists and defend the heinous acts of Muslim fundamentalists.


Should writers return awards when they want to protest?

Come on, they are grown-up people. They should return awards if they want to. We cannot advise them.

Do you feel the Indian PM should speak more empathetically when it comes to Muslims and violence against minorities in India?

Politicians appease Muslims for votes in India. Muslims get so much favour that angers many Hindus. It is true that sometimes Muslims get tortured only because they are Muslims. But it happens to other religious community too. In Canning, a Hindu village in West Bengal, was burnt down by Muslim fanatics in 2013. If Muslims were brutally persecuted in India, they would have left India for neighbouring Muslim countries like Hindu minorities have been leaving Bangladesh and Pakistan since Partition.

सोमवार, 8 जून 2015

पीपल का पत्ता- हृदय रोगों के लिए गुणकारी

क्या आप जानते हैं की ९९% ब्लोकेज को भी 
निकाल  सकता है पीपल का पत्ता
आप ने कभी सोचा भी नहीं होगा की 
पीपल के पत्ते की डिज़ाइन दिल आकार की क्यूँ है ?
 यह हमें सूचित कर रहा है की पीपल का पत्ता
 दिल की बीमारी के लिए
 कुदरत की और से हमारे  लिए अमूल्य भेंट है

15 पीपल के  पत्ते लें जो कोमल गुलाबी कोंपलें न हों, 
बल्कि पत्ते हरे, कोमल व भली प्रकार विकसित हों। 
प्रत्येक का ऊपर व नीचे का कुछ भाग 
कैंची से काटकर अलग कर दें।

पत्ते का बीच का भाग पानी से साफ कर लें। 
इन्हें एक गिलास पानी में धीमी आँच पर पकने दें। 
जब पानी उबलकर एक तिहाई रह जाए तब ठंडा होने पर 
साफ कपड़े से छान लें और उसे 
ठंडे स्थान पर रख दें, दवा तैयार।

इस काढ़े की तीन खुराकें बनाकर प्रत्येक तीन घंटे बाद 
प्रातः लें। हार्ट अटैक के बाद 
कुछ समय हो जाने के पश्चात लगातार पंद्रह दिन तक 
इसे लेने से हृदय पुनः स्वस्थ हो जाता है 
और फिर दिल का दौरा पड़ने की संभावना नहीं रहती।
 दिल के रोगी इस नुस्खे का एक बार प्रयोग अवश्य करें।

* पीपल के पत्ते में दिल को बल और शांति देने की 
अद्भुत क्षमता है।
 
* इस पीपल के काढ़े की तीन खुराकें सवेरे 8 बजे, 
11 बजे व 2 बजे ली जा सकती हैं।
 
* खुराक लेने से पहले पेट एक दम खाली नहीं होना चाहिए, 
बल्कि सुपाच्य व हल्का नाश्ता करने के बाद ही लें।
 
* प्रयोगकाल में तली चीजें, चावल आदि न लें। 
मांस, मछली, अंडे, शराब, धूम्रपान का प्रयोग बंद कर दें। 
नमक, चिकनाई का प्रयोग बंद कर दें।
 
* अनार, पपीता, आंवला, बथुआ, लहसुन, मैथी दाना, सेब का मुरब्बा, मौसंबी, रात में भिगोए काले चने, किशमिश, 
गुग्गुल, दही, छाछ आदि लें।

रविवार, 12 अप्रैल 2015

आओ कंप्यूटर सीखें

अगर आप कंप्यूटर और इसकी कार्यप्रणाली से अंजान है तो हिंदी में इसकी बारीकी समझाने के लिए हम आपको एक उत्तम वेबसाइट बताने जा रहे हैं... आप क्लिक करिए..

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

मोदी सरकार के छह माह

¨ÉÉänùÒ ºÉ®úEòÉ®ú xÉä +{ÉxÉä ¶ÉɺÉxÉ Eäò Uô½þ ¨Éɽþ {ÉÚ®äú Eò®ú ʱÉB ½èþÆ* ´ÉèºÉä iÉÉä ÊEòºÉÒ ¶ÉɺÉxÉ +Éè®ú =ºÉEòÒ ={ɱÉΤvɪÉÉäÆ Eäò ʱɽþÉVÉ ºÉä Uô½þ ¨Éɽþ EòÉ ºÉ¨ÉªÉ ¤É½ÖþiÉ VªÉÉnùÉ xɽþÒÆ ½þÉäiÉÉ ½èþ.. ±ÉäÊEòxÉ ¨ÉÉänùÒ ºÉ®úEòÉ®ú xÉä Ê´É´ÉÉnùÉäÆ ºÉä ¤ÉSÉiÉä ½ÖþB BEò ºÉvÉÒ ¶ÉÖ¯û+ÉiÉ EòÒ ½èþ.. 

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xÉÉèEò®ú¶ÉɽþÒ, ¤ÉèÆÊEòÆMÉ B´ÉÆ Ê´ÉkÉÒªÉ ºÉƺlÉÉxÉÉäÆ EòÒ ÊxɪÉÖÊHòªÉÉäÆ ¨ÉäÆ |ÉÊiɦÉÉ {É®ú VÉÉä®ú +Éè®ú |ɶÉɺÉÊxÉEò ºÉÖvÉÉ®ú ¨ÉÉänùÒ ºÉ®úEòÉ®ú EòÒ |ÉÉlÉʨÉEòiÉÉ+ÉäÆ ¨ÉäÆ ¶ÉÉÊ¨É±É ½èþ* |ÉvÉÉxɨÉÆjÉÒ xÉ®äúÆpù ¨ÉÉänùÒ iÉäVÉÒ ºÉä ¡èòºÉ±Éä ±ÉäxÉä Eäò {ÉIÉvÉ®ú ½èþÆ*
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शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

नेहरू की ही सवा-शताब्दी क्यों?

शंकर शरण 
IV/ 44, एन.सी..आर.टी. आवास, श्री अरविंद मार्ग, नई दिल्ली 110 016


जवाहरलाल नेहरू की सवा-शताब्दी मनाने हेतु बनी उच्च-स्तरीय समिति का पुनर्गठन एक अधूरा कदम है। उस के पहले देश को यह बताया जाना चाहिए कि किस आधार पर नेहरू की शताब्दी और सवा-शताब्दी मनाने के लिए मँहगा सरकारी उपक्रम हुआ, जबकि डॉ. राजेंद्र प्रसाद के लिए नहीं?
यदि नेहरू प्रथम प्रधान मंत्री थे, तो प्रसाद भी प्रथम राष्ट्रपति थे। उसी तरह, क्यों गाँधी-जयंती स्थाई अवकाश घोषित हो गया, जबकि ‘राष्ट्र-पितामह’ स्वामी दयानन्द सरस्वती को वह मान नहीं मिला? फिर, किस कारण सरदार वल्लभभाई पटेल को स्वतंत्र भारत के चौवालीस वर्षों तक देश के औपचारिक सर्वोच्च सम्मान के योग्य नहीं समझा गया? उन से पहले इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी ही नहीं, कई क्षेत्रीय नेताओं तक को भारत-रत्न बनाया जा चुका था! अतः अनेक सवाल एवं तथ्य नेहरू और उनके वंश की महानता भारतीय मानस पर जबरन थोपने का संकेत करते हैं।
हरेक देश में किसी दिवंगत की जयंती मनाने या न मनाने के कारण मूलतः समान होते हैं। जिसने देश और समाज की सच्ची सेवा की, उसे याद करते हैं। जिसने ऐसा कुछ विशेष न किया अथवा हानि पहुँचाई, उसे भूल जाया जाता है। अतः तुलनात्मक सवाल यह भी है कि आज रूस में लेनिन और चीन में माओ को किन कारणों से विस्मृत किया जा चुका है?
लेनिन से नेहरू की तुलना भारत में पहले भी होती रही है। तीस-चालीस साल पहले कांग्रेसी नेता और मार्क्सवादी प्रोफेसर इस पर लेख व पुस्तकें प्रकाशित किया करते थे, और सरकार से ईनाम पाते थे। तब रूस में लेनिन और यहाँ नेहरू की अतुलनीय महानता एक स्वयंसिद्धि होती थी। तदनुरूप दोनों को अपने-अपने देश का मुक्ति-योद्धा, प्रथम शासक, मार्गदर्शक, विचारक, नीति-निर्माता, इस प्रकार महामानव, आदि बताने का चलन था।
फिर समय आया कि रूसियों ने वह लेनिन-पूजा बंद कर दी। वही स्थिति चीन में माओ की हुई। इस तरह, आज उन देशों में अपने-अपने उन कथित मार्गदर्शक, महान विचारक लेनिन, माओ की जयंती मनना तक पूरी तरह बंद हो चुका है। रूस और चीन में इस व्यक्ति-पूजा पटाक्षेप के पीछे कोई जोर-जबर्दस्ती नहीं हुई। रूस चीन की जनता ने सर्वसम्मति से उस कथित महानता का अध्याय बंद किया। कारण यह भी था कि वह पूजा उन पर दशकों तक जबरन थोपी हुई थी। क्या नेहरू की स्थिति भिन्न है?
अब यह निर्विवाद है कि लेनिन, माओ की महानता की गाथाएं उनके देशों में राज्यसत्ता की ताकत के बल पर गढ़ी और प्रचारित की जाती रहीं। उन के जीवन के हर काले अध्याय और कदमों पर भारी पर्दा डाल कर रूसी-चीनी जनगण के जीवन के हर पहलू को लेनिन-माओमय बना डाला गया था। इसीलिए, जैसे ही वह जबरन सत्ता दबाव हटा, लोगों ने स्वयं वह लज्जास्पद पूजा बंद कर दी। इस पर सर्वसहमति इतनी स्पष्ट थी कि उनके देशों में कोई मामूली विवाद तक न हुआ। आज रूस और चीन में टॉल्सटॉय और कन्फ्यूशियस ही सर्वोच्च चिंतक माने जाते हैं, लेनिन और माओ तो बिलकुल नहीं।
सच पूछें तो इस प्रसंग में भी नेहरू को लेनिन से तुलनीय बनाने का समय आ गया है। जिस तरह, कम्युनिस्ट राज ने रूस पर लेनिन-पूजा थोपी थी, उसी तरह नेहरूवंश के राज ने भारत में नेहरू-गाँधी पूजा थोपी। दूसरी ओर, नेहरू का राजनीतिक, वैचारिक रिकॉर्ड भी लेनिन से तुलनीय है। अर्थ-नीति, विदेश-नीति, गृह-नीति, शैक्षिक-नीति, दार्शनिक रुख आदि किसी भी बुनियादी बिन्दु पर नेहरू की विरासत गौरवपूर्ण नहीं है।
उलटे, राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश-नीति में नेहरू के निर्णयों, कार्यों, विचारों में एक से एक लज्जास्पद अध्याय हैं। तिब्बत पर स्थापित भारतीय कूटनीतिक संरक्षण अधिकार को स्वतः छोड़कर उस महत्पूर्ण पड़ोसी देश को अपने ‘मित्र’ कम्युनिस्ट चीन के हवाले कर नेहरू ने स्वयं भारत को अरक्षित कर डाला, जबकि सरदार पटेल ने इसके विरुद्ध चेतावनी दी थी। आज अरुणाचल प्रदेश पर चीन का दावा तिब्बत के माध्यम से है, और किसी तरह नहीं। फिर, प्रधान मंत्री रूप में अपनी प्रथम अमेरिका यात्रा में नेहरू ने अमेरिकियों को कम्युनिस्टों वाला साम्राज्यवाद-विरोध का लेक्चर पिलाकर स्तब्ध, क्षुब्ध कर दिया। इस प्रकार, दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण देश से संबंध बिगाड़ने की शुरुआत की। कम्युनिस्ट चीन से दोस्ती निभाने की खातिर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में भारत को प्रस्तावित स्थाई सीट ठुकराया। यहाँ तक कि जब उसी दोस्त ने चुपके से घुस-पैठ कर कश्मीर के पूर्वी हिस्से का एक भाग दखल कर लिया, तो नेहरू ने संसद में प्रधानमंत्री पद से बयान दिया कि ‘उस हिस्से में तो घास भी नहीं उगती’!
ऐसी बचकानी समझ और लज्जास्पद योग्यता वाले व्यक्ति को प्रथम प्रधान मंत्री बनाने का अपराध मोहनदास गाँधी ने किया था। पर विगत छः दशकों के झूठे, सरकारी प्रचार के कारण आज देश के लोग जानते भी नहीं कि स्वतंत्रता मिलने के समय कांग्रेस में प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू पहली तो क्या, दूसरी पसंद भी नहीं थे! सब से ऊपर सरदार पटेल, फिर जे. बी. कृपलानी को कांग्रेसियों ने अपनी पसंद बताया था। उन्हें अमान्य कर गाँधीजी ने नेहरू को थोपा, जिन्होंने स्वतंत्र भारत के नवनिर्माण और नीति-निर्धारण की पूरी मिट्टी पलीद कर दी।
यहाँ तक कि नेहरू का व्यक्तिगत जीवन भी अनुकरणीय नहीं था। स्वयं नेहरू के वरिष्ठतम सहयोगियों समेत अनगिनत समकालीनों ने यह लिखा है। लेडी माउंटबेटन के अंतरंग प्रभाव में नेहरू ने देश का विभाजन, कश्मीर की ऐसी-तैसी तथा कम्युनिस्ट षडयंत्रकारियों की मदद की। कश्मीर को विवादित और पाकिस्तान को सदा के लिए लोलुप बनाने में नेहरू का सबसे बड़ा दोष है। और यह उन्होंने अपने गृहमंत्री सरदार पटेल को अँधेरे में रख कर किया था! यह सब कोई आरोप नहीं, जगजाहिर तथ्य हैं जिनके प्रमाण उतने ही सर्वसुलभ हैं।
तब ऐसे ‘प्रथम’ मार्गदर्शक की सवा-शताब्दी जयंती में हम क्या मनाएं? किस बात की चर्चा करें? क्या वही झूठ और अतिरंजनाएं दुहराएं, जो नेहरूवंशी सत्ता ने जोर-जबरदस्ती और छल-प्रपंच से स्थापित कर दी हैं? क्या समकालीन रूसी और चीनी जनता से इस मामले में कोई तुलनात्मक लाभ न उठाएं?
किसी भ्रम में न रहें। नेहरू के पक्ष में, उनकी विरुदावली और ‘योगदान’ के जितने भी किस्से व तर्क दिए जाते रहे हैं, वे ठीक वैसे ही हैं जैसे सोवियत सत्ता के दिनों में लेनिन के पक्ष में मिलते थे। अतः बिना उन गंभीर दोषों के, जो नेहरू में थे, बावजूद हमारी सरकार ने यदि प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद की कोई शताब्दी या सवा-शताब्दी नहीं मनाई – तो कोई कारण नहीं कि अनगिनत लज्जास्पद कार्यों के बावजूद हम नेहरू पर देश का पैसा और समय बर्बाद करते रहें। यह पहले ही बहुत अधिक हो चुका है, कम से कम इस का ध्यान भी रखें।
केंद्रीय कैबिनेट ने सही निर्णय लिया है कि ल्युटन की दिल्ली में मृत नेताओं को आवंटित बंगलों को ‘स्मारक’ यानी उनके वंशजों द्वारा कब्जाने की प्रक्रिया बंद की जाएगी। किन्तु, तब अब तक किए गए कब्जों को बनाए रखने की क्या तुक है? इसकी शुरुआत तो नेहरू से ही हुई थी। तीनमूर्ति भवन प्रधान मंत्री निवास था। उसे नेहरू की मृत्यु के बाद उनका स्मारक बना दिया गया। उस तर्क से राष्ट्रपति भवन को राजेंद्र प्रसाद का स्माकर बना देना चाहिए था!
अतः जयंती, स्मारक, संस्थाओं, योजनाओं के नामकरण, आदि प्रक्रियाओं में यह विचित्र भेद-भाव – आगे ही नहीं, पीछे का भी – सदा के लिए खत्म होना चाहिए। पतंजलि, पाणिनि, चाणक्य, कालिदास, तुलसीदास, जैसे शाश्वत मूल्य के अनगिन मणि-मानिकों ही नहीं; स्वामी विवेकानंद, श्रीअरविन्द, जगदीशचंद्र बोस, जदुनाथ सरकार, ध्यानचंद, आदि भारत के कई समकालीन सच्चे महापुरुषों को स्वतंत्र भारत में हमने कितना सरकारी-राष्ट्रीय आदर दिया है? हमारे देश में एक लगभग अशिक्षित नेता के नाम पर बीसियों विश्वविद्यालय खोले गए हैं, और महान इतिहासकार जदुनाथ सरकार, महान कवि निराला या अज्ञेय के नाम पर एक भी नहीं! इस का तर्क उस सोवियत व्यवस्था से तनिक भी भिन्न नहीं, जिसमें पूरी शिक्षा को लेनिन-स्तालिनमय कर दिया गया था, जबकि दॉस्ताएवस्की, सोल्झेनित्सिन जैसे मनीषी पुस्तकालयों से भी बहिष्कृत थे।
ध्यान रहे, आधे-अधूरे सुधार किसी काम के नहीं होते। हमारे नए शासकों को साहस दिखाना चाहिए कि देश का स्वाभिमान हमारा आदर्श हो। चाटुकारिता, भेद-भाव और छिछोरापन इस स्वाभिमान को लज्जित करते हैं। नेहरू की सवा-शताब्दी शाही रूप से मनाई जाएगी, पिछली सरकार का यह निर्णय देश का गौरव बढ़ाने वाला नहीं, बल्कि क्षुद्र कारणों से था।
नई सरकार को इस बिंदु पर सांगोपांग और खुला विचार करना चाहिए। देश के महापुरुषों, मनीषियों की पहचान, सम्मान और उनसे सीखने का स्पष्ट और बुद्धिमत्तापूर्ण मानदंड बनाना ही स्वागत योग्य होगा। तब तक सरकार द्वारा स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री की सवा-शताब्दी ठीक वैसी ही मननी चाहिए, जैसी प्रथम राष्ट्रपति की मनी। न कम, न ज्यादा।
हालाँकि, यदि हम गाँधी-नेहरू को वही स्थान दे सकें, जो रूसी जनता ने लेनिन-स्तालिन को दे दिया है तो सब से अच्छा हो। वैसे भी, समय के साथ होगा वही। सत्ता-प्रायोजित महानता को लोग सदा माथे पर उठाए नहीं रहेंगे। चाहें तो तीन-मूर्ति भवन को सभी दिवंगत नेताओं को श्रद्धांजलि-स्मारक में बदल दें। उन्हें, उनके गुणों का स्मरण करना तो ठीक है। किन्तु उस से पहले हमें यह भी स्मरण करना चाहिए कि भारतवर्ष में अनादिकाल से मरणशील मनुष्यों, चाहे वे कितने ही महान रहे हों, का कोई स्मारक, समारोह, जयंती मनाने की परंपरा नहीं रही है। जहाँ से हमने यह परंपरा नकल कर ली है, वहाँ भी इस की एक लाज रहती है। कम से कम हम इस का भी ख्याल रखें।
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